
गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा
गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा श्रीकृष्ण के अद्भुत लीलाओं में से एक है। यह कथा द्वापर युग की है, जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अलौकिक पराक्रम से इन्द्र के अहंकार को चूर किया और भक्तों की रक्षा की।
कथा का प्रारंभ :
ब्रज में रहने वाले गोकुल और वृंदावन के लोग प्रतिवर्ष इन्द्र देव की पूजा बड़े धूमधाम से किया करते थे। उनका मानना था कि वर्षा के देवता इन्द्र ही हैं, जिनकी कृपा से अच्छी बारिश होती है और कृषि उपजाऊ होती है। इसलिए वे हर साल इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए बड़े-बड़े यज्ञ और भव्य आयोजन करते थे।
जब बालक श्रीकृष्ण ने यह देखा, तो उन्होंने अपनी माता यशोदा और अन्य गोप-गोपियों से प्रश्न किया,
“हम इन्द्रदेव की पूजा क्यों करते हैं?”
गोपियों ने उत्तर दिया कि इन्द्रदेव वर्षा करते हैं, जिससे हमारी गायों के लिए चारा उगता है और हमारी भूमि उपजाऊ होती है। इसलिए हम उनकी कृपा के लिए उनकी पूजा करते हैं।
इस पर श्रीकृष्ण ने कहा,
“वर्षा तो प्रकृति का नियम है। इन्द्रदेव की कृपा के बिना भी गोवर्धन पर्वत हमें हरी-भरी घास, जल और अन्य आवश्यक चीजें प्रदान करता है। इसलिए हमें गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए, न कि इन्द्रदेव की।”
इन्द्रदेव का क्रोध और ब्रजवासियों की परीक्षा
श्रीकृष्ण के तर्कों से प्रभावित होकर ब्रजवासियों ने इस वर्ष इन्द्रदेव की पूजा न करके गोवर्धन पर्वत की पूजा की और गोवर्धन महाराज को भोग अर्पण किया। उन्होंने पर्वत की परिक्रमा की और आनंदपूर्वक उत्सव मनाया।
यह देखकर देवराज इन्द्र को अत्यधिक क्रोध आ गया। उन्होंने सोचा,
“यह छोटा ग्वालबाल मुझे छोड़कर एक साधारण पर्वत की पूजा करवा रहा है? यह मेरा अपमान है।”
अपने अहंकार में इन्द्र ने घनघोर मेघों को आदेश दिया कि वे ब्रज में मूसलधार वर्षा करें और पूरे गाँव को जलमग्न कर दें। देखते ही देखते घनघोर बारिश शुरू हो गई। तेज़ हवाएँ चलने लगीं, बिजली कड़कने लगी और पूरा गोकुल डूबने लगा।
गोप-गोपियाँ भयभीत होकर श्रीकृष्ण के पास दौड़े और बोले,
“कन्हैया! यह क्या हो रहा है? हमें बचाओ!”
श्रीकृष्ण ने उठाया गोवर्धन पर्वत
श्रीकृष्ण अपने भक्तों की इस पीड़ा को देखकर मुस्कुराए और बोले,
“डरो मत! मैं तुम सभी की रक्षा करूंगा।”
इसके बाद उन्होंने अपने छोटे से कनिष्ठ (छोटी उंगली) पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। यह देखकर सभी ब्रजवासी आश्चर्यचकित रह गए।
श्रीकृष्ण ने कहा,
“गायों और सभी ब्रजवासियों को पर्वत के नीचे आकर शरण लेनी चाहिए। यहाँ तुम्हें न वर्षा भिगो पाएगी, न आंधी आएगी, न ही कोई संकट होगा।”
गोप, ग्वाल, गायें, गोपियाँ और समस्त ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे आ गए और श्रीकृष्ण ने सात दिनों तक पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठाए रखा।
इन्द्रदेव का अहंकार नष्ट हुआ
सात दिनों तक लगातार वर्षा के बाद इन्द्र को यह एहसास हो गया कि श्रीकृष्ण कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं। उनका अहंकार चूर-चूर हो गया।
उन्होंने वर्षा रोक दी और स्वयं श्रीकृष्ण के पास आकर क्षमा मांगते हुए बोले,
“हे प्रभु! मैं अपने अहंकार में अंधा हो गया था और आपके भक्तों पर संकट डाल दिया। कृपया मुझे क्षमा करें।”
श्रीकृष्ण ने उसे क्षमा कर दिया और समझाया कि किसी को भी अहंकार नहीं करना चाहिए। सच्ची पूजा प्रेम और भक्ति से होती है, न कि भय और दबाव से।
गोवर्धन पूजा की परंपरा
इसी घटना के बाद से हर वर्ष दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा मनाई जाती है। इस दिन लोग गोवर्धन पर्वत की पूजा करते हैं, अन्नकूट महोत्सव मनाते हैं और अपने घरों में गाय-बैलों की पूजा करके भगवान श्रीकृष्ण का धन्यवाद करते हैं।
कथा से शिक्षा
- अहंकार का नाश होता है – इन्द्र का अहंकार नष्ट हुआ, जिससे यह सीख मिलती है कि अहंकार हमेशा व्यक्ति को नीचे गिरा देता है।
- सच्ची भक्ति प्रेम से होती है – भगवान प्रेम और निष्ठा से प्रसन्न होते हैं, न कि डर और लालच से।
- प्रकृति का सम्मान करें – श्रीकृष्ण ने बताया कि हमें प्रकृति और उसके संसाधनों की पूजा और रक्षा करनी चाहिए।
- संरक्षक के रूप में भगवान – जब भी भक्त संकट में होते हैं, भगवान उनकी रक्षा के लिए हमेशा उपस्थित रहते हैं।