वट पूर्णिमा का व्रत हिंदू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह व्रत मुख्य रूप से सुहागन महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है। यह व्रत ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में यह व्रत अधिक प्रचलित है। इस दिन महिलाएं वट (बरगद) वृक्ष की पूजा करती हैं, क्योंकि यह वृक्ष दीर्घायु और स्थायित्व का प्रतीक माना जाता है।
वटपूर्णिमा व्रत की कथा
इस व्रत की प्रचलित कथा सावित्री और सत्यवान से जुड़ी हुई है। सावित्री ने अपने पति सत्यवान को मृत्यु से बचाने के लिए कठिन तपस्या की थी और यमराज से अपने पति का जीवन पुनः प्राप्त किया था। उनकी दृढ़ निष्ठा, प्रेम और समर्पण के कारण यह व्रत विशेष रूप से विवाहित महिलाओं के लिए शुभ माना जाता है।
वटपूर्णिमा व्रत की पूजा विधि
व्रत का संकल्प लें – प्रातः स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें और व्रत का संकल्प लें।
वट वृक्ष की पूजा करें – महिलाएं वट वृक्ष के चारों ओर कच्चे धागे (धातु का धागा भी उपयोग किया जा सकता है) से सात बार परिक्रमा करती हैं।
पूजन सामग्री – वट वृक्ष की पूजा के लिए जल, रोली, अक्षत, हल्दी, चंदन, फूल, मिठाई, फल, नारियल, धागा और कुमकुम का उपयोग किया जाता है।
वट वृक्ष पर जल अर्पित करें – वट वृक्ष की जड़ में जल अर्पित करें और पूजा करें।
सत्यवान-सावित्री कथा का पाठ करें – पूजा के दौरान व्रत कथा का पाठ अवश्य करें।
पति की लंबी उम्र की प्रार्थना करें – पूजा के बाद अपने पति के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लें।
भोजन व दान करें – इस दिन गरीबों को दान देने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
व्रत का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
धार्मिक दृष्टि से यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते में प्रेम और विश्वास को बढ़ाने का कार्य करता है।
वैज्ञानिक दृष्टि से वट वृक्ष को ऑक्सीजन का प्रमुख स्रोत माना जाता है। इसके नीचे बैठकर ध्यान और पूजा करने से मानसिक शांति मिलती है।
निष्कर्ष
वटपूर्णिमा व्रत केवल एक धार्मिक परंपरा ही नहीं, बल्कि एक संस्कृति और आस्था का प्रतीक है। यह व्रत स्त्रियों की निष्ठा, प्रेम और समर्पण का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिससे वैवाहिक जीवन में सौहार्द बना रहता है।